प्रागैतिहासिक क्षेत्र की प्राचीनता

नवागढ़ (नंदपुर ) के पुरातात्विक, अभिलेखीय एवं ऐतिहासिक साक्ष्य जैन धर्म की पुरातन परंपरा को सिद्ध करते हैं। डॉ स्नेह रानी जैन सागर एवं इंजीनियर एस एम जैन सोनीपत के अनुसार यहां की ग्रेनाइट की चट्टानें एवं गुफाएं ज्वालामुखी के Lava से निर्मित हैं ,जो लाखों वर्ष प्राचीन हैं ।

नवागढ़ में पाषाण काल से वर्तमान काल तक निरंतर मानव सभ्यता जीवंत रहने के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं । इसमें 28 जनवरी 2017 ईस्वी को प्रोफेसर गिरिराज कुमार आगरा द्वारा अन्वेषित पाषाण कुदाल 2 लाख से 5 लाख वर्ष प्राचीन पाषाण कालीन मानव सभ्यता का साक्ष्य है । 6 नवंबर 2016 ईस्वी को डॉक्टर एस के दुबे झांसी तथा श्री नरेश पाठक ग्वालियर द्वारा अन्वेषित पाषाण उपकरण एवं लघु पाषाण औजार 12 से 15000 वर्ष प्राचीन मध्य पाषाण कालीन सभ्यता का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं । सिद्धों की टोरिया का रॉक कप मार्क 10000 वर्ष प्राचीन मानव सभ्यता का साक्ष्य है । दिनांक 6 अक्टूबर 2014 ईस्वी को ब्रह्मचारी जयकुमार निशांत द्वारा अन्वेषित कच्छप शिला की चितेरों की चंगेर शैल चित्र श्रंखलाएं 6 से 8000 वर्ष पूर्व की विकसित मानव सभ्यता, मिट्टी एवं पाषाण के मनके 2000 वर्ष से लगातार मानवीय सभ्यता के साक्ष्य हैं ।

डॉक्टर भागचंद्र भगेन्दु दमोह एवं श्री हरि विष्णु अवस्थी टीकमगढ़ के अनुसार मटकाटोर शिला , कच्छपशिला, बगाज टौरिया की गुफा , फाइटोन पहाड़ी की गुफाएं यहां जैन संतों की हजारों वर्ष प्राचीन साधना स्थली एवं गुरुकुल परंपरा को प्रमाणित करती हैं । इसके साक्ष्य गुफा में उत्कीर्ण कायोत्सर्ग मुद्रा एवं चरण चिन्ह( रॉक कट इमेज) तथा बगाज टौरिया की प्राकृतिक आचार्य गुफा है । नवागढ़ नंदपुर में संग्रहीत प्रतिहार कालीन शिल्प सन 825 ईसवी , शिखर कलश, खंडित तीर्थंकर बिंब, नवागढ़ के 5 किलोमीटर विस्तार एवं ऐतिहासिक साक्ष्य अनुसार यह प्रमाणित होता है कि नवागढ़ प्रतीहार राजाओं द्वारा स्थापित महानगर था। जिसे यहां संग्रहालय में संग्रहीत विशेष मुकुट वाले शीर्ष राज्य सत्ता संपन्न गौरवमई राजधानी होने का संकेत करते हैं ।

डॉक्टर एम एन पी तिवारी वाराणसी एवं डॉ ए पी गौड़ लखनऊ के अनुसार सन 1066 ईस्वी( संवत 1123) का आदिनाथ तीर्थंकर का पद्मासन खंडित आसन अत्यंत महत्वपूर्ण है, चंदेल शासक धंगदेव सन 954 ईस्वीद (संवत 1011 ) के शासन काल में राज्य सम्मान प्राप्त पाहिल श्रेष्ठी ने मुनि वासवचंद्र के काल में खजुराहो में जैन मंदिर निर्माण के साथ नंदपुर वर्तमान नवागढ़ में भी जैन मंदिर का निर्माण कराया था ।पाहिल के पौत्र महिचंद्र प्रपौत्र देल्हन ने सन 1138 ईस्वी (संवत 1195 ) में महावीर तीर्थंकर की स्थापना कराई थी , इसी के साथ यहां सन 1145 ईसवी (संवत 1203 ) में मान स्तंभ एवं प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा संपन्न हुई थी । इससे सिद्ध होता है कि नवागढ़ प्राचीन नंदपुर जिन मंदिरों के समूह वाला विशाल एवं समृद्ध महानगर था। डॉक्टर के पी त्रिपाठी टीकमगढ़ बुंदेलखंड का वृहद इतिहास में उल्लेख करते हैं मदनपुर के अभिलेख अनुसार सन 1182 ईस्वी (संवत 1239) में चंदेल शासक परमर्द्धि देव से युद्ध करते हुए पृथ्वीराज चौहान ने महोबा, लासपुर, मदनपुर के साथ नवागढ़ को भी ध्वस्त किया था। जिसके साक्ष्य यहां के संग्रहालय में संग्रहित विशालकाय शताधिक खंडित प्रतिमाएं हैं ।

डॉक्टर कस्तूरचंद सुमन दमोह के अनुसार उस काल में नंदपुर वर्तमान नवागढ़ महत्वपूर्ण एवं समृद्धशाली जैन तीर्थ क्षेत्र रहा होगा इसलिए सिद्ध क्षेत्र आहार जी के मूलनायक शांतिनाथ तीर्थंकर सन 1180 ईस्वी( संवत 1237 ) की प्रशस्ति तथा अतिशय क्षेत्र पपौरा जी के भोंयरा मंदिर क्रमांक 23 की तीर्थंकर प्रतिमा 1145 ईस्वी (संवत 1202) की प्रशस्ति में इसका नाम उल्लेख प्राप्त होता है।

संरक्षण की विशेष आवश्यकता

नवागढ़ क्षेत्र में संरक्षित पुरा संपदा का वरिष्ठ पुराविदों ने सूक्ष्म निरीक्षण करके कुछ दुर्लभ कलाकृतियां बताई है जो अन्य विशेष संग्रहालयों में भी उपलब्ध नहीं है , इनसे क्षेत्र की प्राचीनता एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की जानकारी प्राप्त होती है । हजारों वर्ष प्राचीन इन कलाकृतियों का क्षरण चिंता का विषय है, इनका सावधानीपूर्वक व्यवस्थित रासायनिक प्रक्रिया द्वारा संरक्षण अनिवार्य है अन्यथा एक विशिष्ट धरोहर कभी भी नष्ट हो सकती है।

विलक्षण कलाकृतियां

राजकुमार अकलंक-निकलंक एक ही शिलाखंड में दोनों राजकुमारों की वस्त्राभूषण से अलंकृत कलाकृति जिसमें अग्रज के हाथ में लंबायमान शास्त्र पत्र एवं कलम है ।

राजकुमार अरनाथ कलात्मक शीर्षखंड जिसमें विशाल मुकुट, दीर्घ नयन, सुडोल नासिका , मांसल कपोल एवं मुस्कुराते होंठ अत्यंत आकर्षक है।

उपाध्याय खंडित आसन जिस पर भट्टारक स्पष्ट अंकित है विशेष आसन वाले पीठ पर चिन्ह के स्थान पर आकर्षक मयूर पिच्छी दृष्टव्य है ।

संभावनाएं

वरिष्ठ पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार नवागढ़ क्षेत्र के पूर्व की ओर 1 किलोमीटर की दूरी पर 30 फुट चौड़ी बावड़ी एवं उसी के पास मंदिर के अवशेष हैं । क्षेत्र के उत्तर दिशा में प्राचीन टीला एवं चंदेलकालीन कुआं है । दक्षिण में स्थित पहाड़ी एवं जंगल में स्थित पहाड़ियों , ग्रामीण अंचलों में विशेष सांस्कृतिक, ऐतिहासिक महत्व की पुरा संपदा एवं पाषाणकालीन सभ्यता के और भी अवशेष मिलने की संभावना है ।इस ओर समाज एवं प्रशासन का ध्यान अपेक्षित है।